जानिए क्या है सुकेत की अधिष्ठात्री देवी सुमित्रा महामाया मंदिर का इतिहास

उमेश भारद्वाज। सुंदरनगर

देवभूमि हिमाचल के देवालय अपने आप इस राज्य की देव संस्कृति को सजोए हुए हैं। प्रदेश की विभिन्न हिस्सों में मौजूद देवी-देवता अपनी देव शैली और चमत्कार के कारण इसे दैवीय शक्ति से परिपूर्ण करते हैं। आज ‘उज्जवल हिमाचल’ अपनी धार्मिक यात्रा को आगे बढ़ाते हुए सुंदरनगर की अधिष्ठात्री देवी महिषासुर मर्दिनी सुमित्रा श्री महामाया मंदिर का इतिहास उजागर करने जा रहा है। इस मंदिर की काष्ठ कला किसी को भी हैरात में डाल देती है।

सुमित्रा श्री महामाया मंदिर छोटी काशी मंडी के सुंंदरनगर शहर के एक छोर पर पहाड़ी पर मौजूद है। सुंदरनगर-मलोह सड़क मार्ग पर स्थित इस मंदिर से प्रतीत होता है कि सुमित्रा महामाया अपने स्थान से संपूर्ण सुंदरनगर की रक्षा कर रही हैं। यह मंदिर पुरातन सुकेत (सुंदरनगर) राज्य के अंंतिम शासक महाराजा लक्ष्मण सेन के कार्यकाल में वर्ष 1932 में हुआ था। महिषासुर मर्दिनी महामाया के प्रति सुंंदरनगर क्षेत्र के अलावा अनेक राज्य में अगाध श्रद्धा है।

पर्व-त्यौहारों के अवसर तथा घर पर कोई भी शुभ कार्य के होने पर लोग महामाया के चरणों में हलवा, पूरी व बाबरू आदि पकवानों का भोग लगाते हैं, जब भी किसी के घर में महामाया की कृपा से पुत्र रत्न की प्राप्ति होती है, तो श्रद्धालु ढोल-नगाड़ाें सहित आकर मां के चरणों में अपना शीश नवाकर रात भर महामायी का गुण गान करके पुत्र की चिरायु के लिए प्रार्थना करते हैं।

महामाया का विधि विधान से पूजन कर प्राप्त हुआ पुत्र रत्न
इतिहास को खंगालने पर सामने आता है कि विवाह के कई वर्षों तक लक्ष्मण सेन की कोई संतान नहीं हुई, तो महाराजा लक्ष्मण सेन अपने वंश की समाप्ति से चिंतित रहने लगे। एक दिन स्वप्न में महामाया देवी ने राजा को दर्शन दिए और कहा कि तुम्हारे पूर्वज प्रारंभ से ही मेरे उपासक रहे हैं। सुकेत राज्य की प्राचीन राजधानी पांगणा में मेरी विधिवत पूजा होती रही है। अब इस पूजन में अनियमितता आ गई है।

महामाया माता नेे राजा लक्ष्मण सेन को उनकी नियमानुसार पूजन की व्यवस्था करने पर शीघ्र ही इसके परिणामस्वरूप पुत्र रत्न की प्राप्ति होने का आशीर्वाद दिया। इस महाराजा लक्ष्मण सेन ने अपने महल के समीप देहरी नामक सुरम्य स्थल में महामाया देवी का आधुनिक स्वरूप में प्राचीन शिखर शैली के अनुरूप भव्य मंदिर बनाया। इसमें आधुनिक नवीनता के साथ-साथ मुगल कालीन शैली का प्रभाव भी झलकता है।

जाने क्या है भव्य महामाया मंदिर में मौजूद
महाराजा लक्ष्मण सेन द्वारा महामाया माता के इस भव्य मंदिर में 5 मंदिर बनाए गए थे, जिसके मध्य महामाया का स्वरूप महिषासुर मर्दिनी दुर्गा भगवती की भव्य संगमरमर मूर्ति, दाईं ओर शिव गौरा के साथ ही सरसों के तेल से जलने वाली महामाई की अखंड ज्योति का कक्ष है। दूसरे भाग में महामाया का शयन कक्ष है, जिसमें देवी की शैय्या है। यहां महामाया रात्री को शयन करती है।

अचंभित कर देने वाली बात यह है कि महामाया के इस शयन कक्ष में कभी सजी संवरी शैय्या पर सुबह सिलवटें पड़ी होने के कारण किसी द्वारा शयन करने का आभास होता है। महामाया गर्भ गृह के बाईं ओर शेषशायी विष्णु भगवान के चरण दबाते हुए मां लक्ष्मी की प्रतिमा स्थापित है। भगवान विष्णु के मंदिर के साथ ही सिखों का धार्मिक ग्रंथ गुरूग्रंथ साहिब का कक्ष है। यहां सिक्ख धर्म के पवित्र ग्रंथ का नित्य प्रकाश होता है।

महामाया के मुख्य द्वार के समीप केसरी नंदन हनुमान का मंदिर है। मुख्य मंदिर के पिछले भाग में भगवान दतात्रेय का मंदिर है। इस प्रकार से महामाया का यह मंदिर समन्वयात्मक देव संस्कृति का एक आदर्श पवित्र स्थल है। मंदिर के आंगन में चंपा व मौलसरी के वृक्ष है, जो सदा हरे-भरे रहते हैं और इन पेड़ों के फूलों से चलने वाली सुगंध वातावरण को शुद्ध बनाए रखती है।

निसंतान की झोली भरती है माता महामाया
महामाया मंदिर में देवी की प्राण प्रतिष्ठा विक्रमी संवत 1991 के माघ मास की शुक्ल पक्ष त्रयोदषी तिथि को हुई थी। जनश्रुति है कि राजा ने जब महामाया मंदिर निर्माण का संकल्प लिया। इसके कुछ ही समय पश्चात राजा को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। प्रथम पुत्र के रूप में महाराज ललित सेन पैदा हुए। इस तरह महाराज लक्ष्मण सेन के 5 पुत्र और 2 पुत्रियों ने जन्म लिया। इससे भाव-विभोर होकर महामाया की प्रधानता में राजा लक्ष्मण सेन ने सर्व धर्म समभाव की भावना को आलोकित करने वाले इस मंदिर का निर्माण करवाया।

क्या है मंदिर का दार्शनिक रूप
सुमित्रा महामाया का यह भव्य मंदिर चील-सरूओं, फलदार व अन्य वृक्षों के बीच शोभायमान है। इस कारण से इस स्थान को सुंंदर वन के नाम से भी जाना जाता है। इस स्थान से दूर-दूर तक सुंंदरनगर के समतल तथा पहाड़ी भू-भाग का सौंदर्य दर्शन किया जा सकता है। महामाया क्षेत्र का प्राचीन नाम बनौण था। यहां बहुत पहले बान के वृक्ष का सघन वन था, इसलिए इसे लोग बनौण कहते थे। आज भी पुराने बुजुर्ग इस स्थान को बनौण कहते हैं। इसी स्थान के आधार पर लोगों में भगवती महामाया के लिए बनौणी महामाया नाम का नाम प्रचलित है।

महामाया से जुड़ा है राजस्तरीय सुकेत देवता मेले का इतिहास
चैत्र नवरात्रों के मध्य सुंदरनगर में आयोजित होने वाला राज स्तरीय सुकेत देवता मेला भी महामाया के नाम से आयोजित किया जाता है। कहा जाता है कि महाराज लक्ष्मण सेन के प्रथम पुत्र का जन्म चैत्र नवरात्र की पंचमी तिथि को हुआ था, जिस कारण पंचमी तिथि से लेकर नवमी तिथि तक धूम-धाम से मनाया जाता है। इसमें सुंंदरनगर और करसोग के लगभग 175 देवी-देवता सम्मिलित होते हैं।

नवमी को मुख्य मेला होता है और इस दिन सभी देवी देवता आदिशक्ति श्री महामाया के चरणों में शीश नवा कर अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं। इसके उपरांत सभी देवी-देवता राजमहल में जाकर राजपरिवार को आशीर्वाद देते हैं। वहीं, इस दिन माता महामाया की पालकी और त्रिशूल सुंदरनगर शहर की रक्षा करने के कार भी बांधी जाती है। इसके उपरांत सभी देवी-देवता सुंंदरनगर शहर की परिक्रमा
कर अंत में मेला स्थल में एकत्रित होकर लोगों को आशीर्वाद देकर अपने-अपने स्थान की ओर प्रस्थान करतें हैं।

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