प्रदूषण की चुनाैती से निपटने के लिए करने हाेंगे कारगर उपाए

उज्जवल हिमाचल। नई दिल्ली

भारत में प्रदूषण का स्तर अक्तूबर महीने से बढ़ना शुरू होता है और फिर वह जनवरी-फरवरी तक जारी रहता है। प्रदूषण बीमारियों को निमंत्रण देने के साथ मानव की उम्र घटाता है। चूंकि दीवाली का पर्व इन्हीं दिनों पड़ता है और इस अवसर पर पटाखे चलाए जाते हैं, इसलिए अक्सर उन्हें ही प्रदूषण के लिए जिम्मेदार मान लिया जाता है। इसी कारण उच्चतम न्यायालय ने इस वर्ष भी उनके इस्तेमाल पर पाबंदी लगाई। धरती को बचाने के लिए जलवायु परिवर्तन को रोकने के उद्देश्य से ग्लासगो में हुए काप-26 सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कार्बन उत्सर्जन का नेट जीरो लक्ष्य हासिल करने और ऊर्जा के गौर परंपरागत स्नोतों पर निर्भरता बढ़ाने के मामले में भारत की प्रतिबद्धता जताकर एक सही पहल की।

यह पहल ऐसे समय की गई जब विकसित देश भारत और अन्य विकासशील देशों पर यह दबाव बना रहे हैं कि वे ऊर्जा के गैर परंपरागत स्नोतों पर ज्यादा ध्यान दें। विकसित देशों ने पेट्रोलियम और कोयले के उपयोग को सीमित करने की अपने लिए समय सीमा वर्ष 2050 रखी है। वे चाहते हैं कि भारत भी इसी समय सीमा का पालन करे। चूंकि चीन ने यह सीमा 2060 रखी है, इसलिए भारत ने 2070 तक का लक्ष्य रखा है। भारत की ऊर्जा जरूरतों और परंपरागत ऊर्जा स्नेतों पर निर्भरता को देखते हुए यह एक चुनौतीपूर्ण लक्ष्य है।

प्रधानमंत्री मोदी ने ग्लासगो सम्मेलन में सौर ऊर्जा की वकालत करते हुए वन सन, वन वर्ल्ड, वन ग्रिड का मंत्र दिया। भारतीय दर्शन में सूर्य को ऊर्जा का सबसे बड़ा स्नेत माना गया है। भारत सौर ऊर्जा पर ध्यान केंद्रित किए हुए है। चूंकि सूर्य की ऊर्जा दिन में सात-आठ घंटे ही मिल पाती है, इसलिए कोई भी देश 24 घंटे उस पर निर्भर नहीं रह सकता। पृथ्वी के किसी हिस्से पर अंधेरा होता है तो किसी अन्य पर उजाला। इसी को दृष्टिगत रखते हुए भारतीय प्रधानमंत्री ने आह्वान किया कि क्यों न सौर ऊर्जा की विश्वव्यापी ग्रिड बनाई जाए। यह एक दूरगामी सोच है, लेकिन इस पर सभी देश मिलकर काम करें तो भविष्य में इस पर अमल संभव है।

अगर विश्व के सारे देश अगले दो दशक में इस तरीके की ग्रिड का निर्माण करने में जुट जाएं, तो यह पृथ्वी को मानव की एक बड़ी देन होगी। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि पृथ्वी का दोहन सबसे अधिक मानव ने ही किया है। इसी अंधाधुंध दोहन के कारण न जाने कितने जंतुओं और वनस्पतियों की प्रजातियां लुप्त हो गई हैं। विश्व की पूरी आबादी को अनाज से पोषण मिलता है, लेकिन इस आबादी का एक बड़ा हिस्सा अंडे, दूध और मांस पर निर्भर है। ये सब चीजें जिन पशुओं से मिलती हैं, उन्हें भी अनाज खिलाना पड़ता है। इसे उगाने के लिए जंगल काटने पड़ते हैं।

इसका पर्यावरण पर घातक प्रभाव पड़ता है। एक शोध के अनुसार सौ ग्राम सब्जी के मुकाबले 50 ग्राम लाल मांस उत्पादित करने में 20 गुना ज्यादा ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन होता है। बीते एक डेढ़-दशक से इसके पैरोकार बढ़े हैं कि मानव को शाकाहारी हो जाना चाहिए, क्योंकि मांसाहारी मानव पर्यावरण के लिए खतरा है। इस पैरोकारी के बाद भी इसके आसार नहीं कि मानव अपनी आदतें जल्दी बदलेगा। साफ है कि पर्यावरण को बचाना एक चुनौती बना रहेगा। पिछले कुछ दशकों के दौरान अनाज से बायोफ्यूल और खासकर एथनाल बनाया जा रहा है, लेकिन इस पर पूरी तरह निर्भर नहीं हुआ जा सकता, क्योंकि इसे पाने के लिए भी जंगल काटने होंगे और पानी की खपत बढ़ानी होगी।

जब ग्लासगो में पर्यावरण को बचाने के उपायों पर बहस हो रही है, तब अपने यहां उत्तर भारत के एक बड़े इलाके में प्रदूषण ने गंभीर रूप में सिर उठा लिया है। वास्तव में सर्दियां आते ही हिमालय के दोनों ओर यानी भारत और चीन के मैदानी इलाकों में प्रदूषण की समस्या पैदा हो जाती है। इस प्रदूषण से निपटने के लिए तत्काल उपाय करने होंगे। इसके लिए 2060 या 70 तक इंतजार नहीं किया जा सकता। इस पाबंदी का कुछ असर तो दिखा, पर इससे प्रदूषण थमा नहीं। यह इसलिए नहीं थमा, क्योंकि प्रदूषण पराली जलाने, कारखानों के उत्सर्जन और निर्माण स्थलों से उड़ने वाली धूल के कारण भी फैलता है। इसके अलावा सड़कों पर जाम के कारण धीमी गति से चलते वाहनों से भी प्रदूषण फैलता है। यह जाम इसलिए लगता है, क्योंकि हमारे शहरों का आधारभूत ढांचा ठीक नहीं।

स्पष्ट है कि इस ढांचे को प्राथमिकता के आधार पर ठीक करना होगा। इसी तरह कोयला आधारित बिजली संयंत्रों को बंद करना होगा। अच्छा होगा कि उत्तर भारत में इन संयंत्रों को बंद कर उन्हें दक्षिण भारत ले जाया जाए और वहां से बिजली हासिल की जाए। कोयले का अन्य तरीके से होने वाला इस्तेमाल भी रोकना होगा। इसके अलावा खाना पकाने के लिए उपलों और लकड़ी का उपयोग भी बंद करना होगा। साफ है कि उज्‍जवला योजना को और व्यापक रूप देना होगा और यह सुनिश्चित करना होगा कि एलपीजी गैस का उपयोग बढ़े। केंद्र और राज्य सरकारों को यह भी ध्यान रखना चाहिए कि शहरी क्षेत्रों में प्रदूषण का एक प्रमुख कारण अनियंत्रित विकास और वाहनों की संख्या लगातार बढ़ रही है।