कांगड़ा चाय उद्योग की बजट में अनदेखी

उज्जवल हिमाचल डेस्क…

अंग्रेजों ने जिन पहाड़ों में चाय के महत्व को समझकर इसकी खेती को शुरू करवाकर दुनिया में पहचान दिलवाई। आज उसी कांगड़ा चाय को सरकार की उदासीनता का सामना करना पड़ रहा है। कांगड़ा चाय के कारोबार से करीब 20 हजार लोग जुड़े हैं। इनमें से अधिकांश वे कारीगर हैं, जिनकी रोजी-रोटी ही चाय बागानों से चाय तोड़कर और फैक्ट्रियों में चाय उत्पादन से चलती है। इस बार बजट से इन लोगों को खासी उम्मीद थी, लेकिन केंद्र सरकार ने बजट में असम व पश्चिम बंगाल के चाय श्रमिकों में महिलाओं व बच्चों के लिए कल्याण के लिए एक हजार करोड़ रुपये उपलब्ध करवाने की घोषणा की पर कांगड़ा चाय से जुड़े श्रमिकों की उम्मीदों पर पानी फेर दिया है।

पालमपुर को उत्तर भारत की चाय राजधानी के रूप में जाना जाता है। इसका श्रेय जाता है वर्ष 1849 में बोटेनिकल गार्डन के तत्कालीन अधीक्षक डा. जेमिसन को। उन्होंने ही सबसे पहले पालमपुर को चाय उत्पादन के लिए उपयुक्त माना था। इसके बाद चाय की खेती शुरू होते ही यहां की बेहतरीन चाय की ओर यूरोपीय चाय बागान मालिकों का ध्यान गया। फिर यहां चाय बागानों की संख्या बढ़ती गई।

एक जमाने में कांगड़ा चाय को लंदन में गोल्ड और सिल्वर मेडल भी मिला था। वर्ष 1849 में अल्मोड़ा और देहरादून की नर्सरी से चाय का पौधा लाकर यहां लगाया गया था। इसके बाद यहां चाय की खेती की जाने लगी। वर्ष 1852 में पालमपुर के होल्टा में चाय का एक व्यावसायिक बागान बनाया गया। इसके बाद स्थानीय लोगों और अंग्रेजों ने चाय के व्यवसाय से जुड़ना शुरू कर दिया था।