वजूद बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं कांग्रेस-वामदल

उज्जवल हिमाचल। कोलकाता

जिनका दो व तीन दशकों से भी अधिक समय तक बंगाल पर एकछत्र राज रहा, आज वे एक-एक सीट के लिए मोहताज हो रहे हैं। यह कांग्रेस और वामदलों की दास्तां है। आजादी के बाद से लेकर 1977 तक बीच के कुछ वर्षों को छोड़कर कांग्रेस ने बंगाल पर दो दशकों से अधिक समय तक शासन किया, लेकिन आज हालात यह है कि उसे चुनाव लड़ने के लिए कभी धुर विरोधी रहे वामदलों और मौलाना के दल से हाथ मिलाना पड़ रहा है। ऐसा ही हाल माकपा के नेतृत्व वाले वाममोर्चा का भी है।

34 वर्षों तक सत्ता में रहने वाले और खुद को जाति, धर्म और मजहब को दूर रखकर धर्मनिरपेक्षता का दंभ भरने वाले कॉमरेडों की आज हालत यह है कि अपना वजूद बचाने के लिए उन्हें अब्बास सिद्दीकी से हाथ मिलाकर चुनावी रण में उतरने से गुरेज नहीं है। आखिर कांग्रेस और वामदलों का ऐसा पतन क्यों हुआ? यह ऐसा सवाल है, जिसका जवाब बंगाल के सभी कांग्रेस नेताओं और कॉमरेडों को पता है लेकिन वे देते नहीं। बंगाल के सियासी इतिहास के पन्ने पलटेंगे तो पता चलता है कि सत्ता में रहते ही कांग्रेस और वाममोर्चा का परचम बुलंद था। जैसे ही सत्ता गई, उनकी सियासी जमीन भी खिसक गई।

1952 में बंगाल में पहला विधानसभा का चुनाव हुआ तो कांग्रेस का परचम लहराया। यहां भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाजपा), रेवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी, फारवर्ड ब्लाक जैसे वामपंथी दलों की जड़ें भी मजबूत होती गईं। कांग्रेस के कद्दावर नेता व सूबे के दूसरे मुख्यमंत्री बिधान चंद्र राय के समय ही कांग्रेस बंगाल में पहली बार दो भागों में बंटी। कांग्रेस से टूटकर नई पार्टी बंगाल कांग्रेस बनी, जिसके अगुआ अजय मुखर्जी थे। उस समय कांग्रेस के सामने दूसरा कोई ताकतवर दल नहीं था जिसकी वजह से वह लगातार जीतती रही।

उधर, भाकपा और अन्य दल भी मजबूत होते गए लेकिन भाकपा भी बंट गई और माकपा बनी, जिसका झंडा ज्योति बसु, अनिल बसु, विमान बोस, बुद्धदेव भट्टाचार्य जैसे नेताओं ने थामा और इधर कांग्रेस में सिद्धार्थ शंकर रॉय, अब्दुल गनी खान चौधरी, प्रणब मुखर्जी, प्रियरंजन दासमुंशी सरीखे नेता थे। केंद्र की सत्ता में रहने के बावजूद 1977 में हिंसा, दमन और गलत नीतियों की वजह से कांग्रेस बंगाल की सत्ता से बाहर हो गई। इसके बाद धीरे-धीरे कांग्रेस का पतन शुरू हो गया। कांग्रेस में गुटबाजी भी बढ़ गई थी।

एक जनवरी, 1998 को ममता बनर्जी ने कांग्रेस छोड़कर अपनी पार्टी तृणमूल कांग्रेस बना ली। इधर, वाममोर्चा लगातार ताकतवर हुआ और उधर तृणमूल प्रमुख के रूप में ममता बनर्जी का कद बढऩे लगा। कांग्रेस दूसरे से तीसरे नंबर पर पहुंच गई। हालात ऐसे बने कि कई बार तृणमूल के साथ कांग्रेस को हाथ मिलना पड़ा। 2009 के लोकसभा और 2011 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने तृणमूल के साथ मिलकर चुनाव लड़ी, फिर भी तीसरे स्थान पर रही।

असली पतन कांग्रेस के लिए 2012 के बाद शुरू हुआ, जब तृणमूल ने कांग्रेस के विधायकों से लेकर नेताओं को तोडऩा शुरू किया। 2016 में वाममोर्चा के साथ गठबंधन कर लड़ने के बाद 44 सीटें जीतकर नंबर दो पार्टी बनने वाली कांग्रेस के एक दर्जन से अधिक विधायक तृणमूल में चले गए। आज हालत यह है कि कई जिलों में संगठन के नाम पर दो-चार ही लोग बचे हैं।

भाजपा के उत्थान के साथ ही कांग्रेस और वाममोर्चा क्रमश: तीसरे और चौथे स्थान पर पहुंच गई। इस चुनाव में भी एक बार फिर वाममोर्चा और कांग्रेस के बीच मजबूरी का गठबंधन हुआ है। वहीं, भाजपा की भी परेशानी इससे है कि वाममोर्चा-कांग्रेस गठबंधन के मजबूत होने से तृणमूल विरोधी वोट कहीं बंट न जाए। गठबंधन कर भाजपा और तृणमूल के बीच होने वाली सीधी लड़ाई को त्रिकोणीय बनाने की कोशिश की है।