तालिबान के साथ क्याें बात नहीं करना चाहता भारत, जाने क्या है वजह

उज्जवल हिमाचल। नई दिल्‍ली

15 अगस्त को अफगानिस्तान पर तालिबान के कब्जे और अब सरकार बनाने के करीब पहुंचने के बाद उनके साथ रिश्तों को लेकर दुनिया दो खांचे में बंट गई है। एक इनको खुला समर्थन दे रहा है। आज से कुछ दशक बाद जब भारतीय विदेश नीति की समीक्षा की जाएगी, तो उसे अच्छा या खराब बताने वाली राय को आज उठाए गए हमारे कदम तय करेंगे। अफगानिस्तान में नई हुकूमत के साथ रिश्तों को लेकर भारत इसी कश्मकश से जूझ रहा है। रिश्तों की रस्म निभाई जाए या नहीं। दूसरा खेमा गुड़ तो खाने की बात कर रहा है, लेकिन गुलगुले से उसे परहेज है।

यानी तालिबान सरकार से जुड़ना तो वे चाह रहे हैं, लेकिन उसे मान्यता देने पर हिचक बरकरार है। इन अनिश्चितताओं के बीच भारत को अफगानिस्तान से एक सधा और ठोस संबंध बनाने की चुनौती है।इतिहास की अपनी सबसे बड़ी हार के साथ दुनिया का सबसे ताकतवर मुल्क अमेरिका मैदान छोड़कर भाग चुका है, लेकिन क्लाशिनकोव की तड़तड़ाहट दक्षिण एशियाई देशों के लिए छोड़ गया। पाकिस्तान तालिबान का सबसे बड़ा हमदर्द रहा है। पाकिस्तान के बूते चीन भी अपनी जुगत साध रहा है। रूस भी भारत के साथ किए अपने वायदों से मुकरता दिख रहा है। विशेषज्ञ मानते हैं कि कहीं ये चारों देशों का कोई एक गठबंधन न बन जाए। तालिबान के सबसे हिमायती बन रहे ये देश भी सशंकित हैं। तालिबान की प्रवृत्ति और प्रकृति का इतिहास इन्हें भी असुरक्षित ही रख रहा है। इधर, अफगानिस्तान में सत्ता बदलाव का सूत्रधार रहा कतर दुनिया से अपील कर रहा है कि वे तालिबान को अलग-थलग न छोड़ें। द्विपक्षीय रिश्ते बनाए रखें, ऐसा न करने से अफगानिस्तान और बदहाली की तरफ बढ़ेगा।

तालिबान खुद दावा कर रहा है कि उसकी कायापलट हो चुकी है और भारत से कारोबारी और राजनयिक रिश्तों को बनाए रखने की दुहाई दे रहा है, लेकिन उसकी वाणी और कर्म में साम्य नहीं दिखा। भारत अफगानिस्तान और वहां के नागरिकों के हित को पहली प्राथमिकता देता दिख रहा है। इस कश्मकश के बीच तालिबान सरकार के साथ भारत के संभावित रिश्तों की पड़ताल आज बड़ा मुद्दा है।