सुदर्शन चक्र के निर्माण में शिव जी का क्या योगदान है

उज्जवल हिमाचल। डेस्क

भगवान विष्णु और भगवान शिव एक दूसरे को अपना इष्टदेव मानते हैं। समय-समय पर दोनों एक दूसरे के भक्त बन जाते हैं। एक बार भगवान विष्णु ने सोचा कि क्यों न अपने इष्टदेवता और देवो के देव महादेव को प्रसन्न किया जाए। शिव को प्रसन्न करने के लिए उन्होंने एक हजार कमल पुष्प अर्पित करने का विचार बनाया। भगवान नारायण ने पूजा के सभी सामान एकत्रित करके पूजा आसन ग्रहण किया। इसके बाद उन्होंने संकल्प लेकर अनुष्ठान शुरु किया।

वैसे तो शिव जी के इष्ट नारायण हैं और नारायण के इष्ट शिव जी। भगवान शंकर को एक ठिठोली सुझी, उन्होंने चुपचाप हजार कमलों में से एक कमल चुरा लिया। नारायण को इस बात का पता नहीं चला क्योंकि वो तो अपने प्रभु के पूजा में लीन थे। पूजा में व्यस्त नारायण ने नौ सौ निन्यानवे कमल पुष्प अर्पित किया। जब वो आखिरी कमल पुष्प यानी एक हजारवां पुष्प अर्पित करना चाहा, तो थाल में कोई पुष्प नहीं था।

भगवान नारायण को लगा कि ऐसे तो पूजा अधूरी रह जाएगी। पुष्प के लिए न वे स्वयं जा सकते और न ही किसी से पुष्प लाने को कह सकते थे। शास्त्रों के अनुसार, पूजा के समय बोलने या पूजा से जाने की मनाही है।

भगवान नारायण चाहते तो अपने शक्ति से पुष्पों का अंबार लगा देते परंतु उस समय वे भगवान नहीं, बल्कि भक्त के रूप में थे, इसीलिए अपनी शक्ति का उपयोग पूजा में नहीं करना चाहते थे। तभी नारायण ने सोचा कि लोग मुझे कमल नयन बुलाते हैं। उन्होंने अपनी एक आंख निकालकर शिव जी को कमल पुष्प समझकर अर्पित कर दिया।

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भगवान शिव ने नारायण का यह समर्पण देखकर भावविभोर हो गए और उनके नेत्रों से प्रेमाश्रु निकल पड़े। इस समर्पण से शिव सिर्फ मन से ही नहीं, बल्कि तन से भी पिघल गए, जो चक्र के रूप में परिणित होकर सुदर्शन चक्र बन गये। इसे भगवान नारायण हमेशा अपने दाहिने हाथ की तर्जनी में धारण करते हैं। इस तरह नारायण और शिव एक दूसरे के साथ रहते हैं।