कृषि कानून विरोधी आंदोलन बना रहा अराजकता और हिंसा के नए कीर्तिमान

उज्जवल हिमाचल। डेस्क

देश के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ कि किसी राज्य सरकार ने एक संगठन द्वारा बुलाए बंद की अपील को कामयाब बनाने के लिए बाकायदा कैबिनेट से प्रस्ताव पास कराया। संविधान निर्माताओं ने कभी इसकी कल्पना नहीं की होगी, मगर इस पर किसी विपक्षी दल को संविधान और जनतंत्र खतरे में नजर नहीं आया। इस आंदोलन को लेकर संयुक्त किसान मोर्चा के दो दावे या वादे बेमानी साबित हुए हैं। पहला यही कि यह गैर राजनीतिक है और दूसरा यह कि आंदोलन अहिंसक होगा। भारतीय राजनीति में अब सभी वर्जनाएं टूट गई हैं। संविधान की व्याख्या अब कानून के मुताबिक नहीं, बल्कि राजनीतिक दलों की जरूरत के मुताबिक होती है।

संयुक्त किसान मोर्चा ने हाल में भारत बंद का आह्वान किया। इस बंद को सफल बनाने के लिए महाराष्ट्र ने सरकार और गुंडागर्दी दोनों का इस्तेमाल किया। सोते-जागते गांधी की दुहाई देने वालों को अब गांधी नहीं याद आते। चौरीचौरा में हिंसा के बाद गांधी ने अपना आंदोलन रोक दिया था। इसके विपरीत संयुक्त किसान मोर्चा का आचरण देखिए। गणतंत्र दिवस पर लाल किले और दिल्ली के दूसरे क्षेत्राें में अराजकता का जो नंगा नाच हुआ। वहीं, इस कथित अहिंसक आंदोलन को रोकने के लिए पर्याप्त था, लेकिन उसके बाद जो हुआ वह और खतरनाक है। पंजाब में भाजपा विधायक के कपड़े फाड़ दिए, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में विधायक की गाड़ी पर हमला, हरियाणा में विधायक को बंदी बना लिया।

हरियाणा और पंजाब में जनप्रतिनिधियों को अपने क्षेत्र में नहीं जाने दिया जा रहा। फिर लखीमपुर खीरी में चार लोगों की पीट-पीट कर हत्या कर दी गई। उत्तर प्रदेश में ब्राह्मणों और गरीबों की चिंता से दुःखी होने वालों में घटना के इस पक्ष पर गजब का सन्नाटा है। इन सब बातों से भी ज्यादा चिंता की बात है भारतीय किसान यूनियन के नेता राकेश टिकैत का यह बयान कि लखीमपुर खीरी में भाजपा कार्यकर्ताओं की हत्या गलत नहीं है। उनके इस बयान पर किसी विपक्षी दल की कोई प्रतिक्रिया नहीं आई। किसी अदालत ने स्वत: संज्ञान नहीं लिया। हिंसा के लिए खुल्लम-खुल्ला उकसाने का इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है, तो क्या मान लिया जाए कि देश में खून के बदले खून का कानून लागू हो गया है। किसान नेता किसी संवैधानिक पद पर नहीं हैं।

उनका संविधान में भी कोई यकीन नहीं दिखता। वे नहीं बताएंगे कि सरकार ने जो तीन कृषि कानून बनाए हैं उनमें क्या खराबी है? उनकी बस एक ही जिद है कि कानून रद्द करो। क्यों रद करो? क्योंकि उसके बिना जिन राजनीतिक दलों का खेल वे खेल रहे हैं उन्हें फायदा नहीं होगा। संयुक्त किसान मोर्चा और सरकार का विरोध कर रहे विपक्षी दलों ने सारी ताकत लगा दी, लेकिन इस कथित आंदोलन को अढ़ाई राज्यों से बाहर नहीं पहुंचा सके। महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे सरकार ने जो किया उसे इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। महाराष्ट्र में शिवसेना, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और कांग्रेस की साझा सरकार है। इन तीन पार्टियों को इस बात का विश्वास नहीं था कि वे मिलकर भी संयुक्त किसान मोर्चा की भारत बंद की अपील को सफल बना पाएंगी। ऐसे में एक ही रास्ता बचा था।

सरकारी बंद। जिस सरकार पर प्रदेश की व्यवस्था चलाने की जिम्मेदारी है, वही कैबिनेट से उसे बंद करवाने का प्रस्ताव पास करवा रही है। यह इस बात का भी संकेत है कि उद्धव ठाकरे को भरोसा नहीं था कि उनकी अपील पर बाकी दोनों दल साथ देंगे। इतना सब करके भी शिवसेना के गुंडों को सड़क पर उतारना पड़ा। प्रियंका वाड्रा भी मंगलवार को किसान मोर्चा के कार्यक्रम में लखीमपुर खीरी पहुंच गईं। मंच पर नहीं, लेकिन अगली कतार में उन्हें जगह दी गई। यह कुछ वैसा दृश्य था जैसा पुराने जमाने में जमींदार के किसी गांव वाले के विवाह समारोह में पहुंचने पर दिखता था। यानी अगली कतार में बैठकर आशीर्वाद देने का। संयुक्त किसान मोर्चा का यह आंदोलन अराजकता और हिंसा के नए कीर्तिमान बना रहा है।

महाराष्ट्र हमेशा से किसान आंदोलनों के लिए विख्यात रहा है। उस महाराष्ट्र में मोर्चा नेताओं के आंदोलन को पिछले एक साल में कभी समर्थन नहीं मिला। बंद करवाने के लिए सरकार की मदद लेनी पड़ी। इस आंदोलन की किसानों के बीच अविश्वसनीयता का इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है? ऐसा हश्र किसी भी आंदोलन का हो सकता है, पर इस आंदोलन का हुआ, जो कहीं ज्यादा गंभीर बात है। ऐसा इसलिए, क्योंकि इस आंदोलन को देश के सभी मोदी विरोधी राजनीतिक दलों का समर्थन हासिल है। आम किसान के समर्थन से वंचित यह आंदोलन मोदी विरोधी दलों के जनाधारहीन होने की कहानी भी कहता है, तो दो शून्य मिलकर क्या बनते हैं? यह बताने के लिए आपको गणितज्ञ होने की जरूरत नहीं है।