यहां पढ़े माता हाटेश्वरी के साथ जुड़ी आलौकिक चमत्कार की कहानी

उमेश भारद्वाज। सुंदरनगर

देवी-देवताओं की पौराणिक गाथाओं से परिपूर्ण देवभूमि हिमाचल प्रदेश अपने समृद्ध संस्कृति के विश्वभर में जाना जाता है। आज “उज्जवल हिमाचल“ गुप्त नवरात्र के पावन अवसर पर जिला मंडी के प्रसिद्ध शक्तिपीठ माता हाटेश्वरी के इतिहास से रूबरू करवाने जा रहा है। मंडी जिला की बल्ह घाटी के सुंदरनगर-बग्गी सड़क मार्ग पर हटगढ़ में मौजूद माता हाटेश्वरी के इस भव्य मंदिर की मान्यता संपूर्ण उत्तर भारत में है। महाभारत काल से संबंधित इस प्राचीन मंदिर के समीप पांडवों द्वारा कुरुक्षेत्र के महायुद्ध के उपरांत स्वर्ग के लिए सीड़ियों के भी निर्माण की कोशिश की गई थी। लेकिन एक ही रात में इसका निर्माण नहीं कर पाने के कारण इसका कार्य अधूरा रह गया था। वहीं मंदिर के समीप अर्जुन द्वारा जमीन से पानी निकालने के लिए कमरूनाग झील से चलाया गया तीर आज भी पाषाण रूप में मौजूद है। मंदिर में मौजूद शिवलिंग स्वयम्भू और पंचमुखी है।मंदिर परिसर में जिस प्रकार के विशाल पाषाण अवशेष मिलते हैं, उससे तय है कि मंदिर के आस पास कोई बड़ा शहर या कस्बा था। आज भी खुदाई करने पर पाषाण अवशेष मिलते रहते हैं। इलाके का नाम हटगढ़ होना भी इस बात की पुष्टि करता है कि इतिहास में इस जगह कोई राजा का गढ़ रहा होगा। वहीं मंदिर में अखंड धूणा भी मौजूद है।

  • महाभारत काल से जुड़ा है हाटेश्वरी माता का इतिहास

महाभारत के दौरान पांडव भी इस मंदिर में आए थे और यहां से ही पांडवों द्वारा स्वर्ग के लिए सीढ़ियों का निर्माण कार्य शुरू किया गया था जो एक ही रात्रि में किसी भी जीव के जागने से पहले पूरा करना था। लेकिन सुबह होने पर पक्षियों की चहचहाहट के कारण काम कुछ सीड़ियों के निर्माण के बाद रूक गया था। इन सीढ़ियों के अवशेष मंदिर के मुख्य द्वार से पहले मौजूद हैं। महाभारत के युद्ध के बाद पांडव इस क्षेत्र से गुजरे थे। वर्तमान में जिसे काटल खड्ड कहा जाता है, उसमें स्नान करके पांडवों ने माता हाटेश्वरी की पूजा अर्चना की थी। पांडवों को पीलिया रोग हो गया था, जिसे माता हाटेश्वरी द्वारा ही ठीक किया गया था। पांडव जब कमरू झील के पास थे, तब अर्जुन ने जमीन से पानी निकालने के लिए वहां से एक तीर चलाया था ,जो आज भी पाषाण रूप में मंदिर से 300 मीटर दूर जंगल मे मौजूद है। मंडी रियासत के राज परिवार का माता हाटेश्वरी से बहुत पुराना नाता है। इस बात की पुष्टि इससे होती है कि मंदिर में पूजा करने का अधिकार आज भी सिर्फ मंडी के ही पुजारियों को है। इस प्रकार के अवशेष मंदिर परिसर में मिलते हैं यह बात तो तय है कि यहां राजाओं का रहन सहन था।

  • पांडवों ने किया था परौल का निर्माण

मान्यतानुसार पांडवों ने हाटेश्वरी माता मंदिर में परौली बनाई थी। मंदिर से 50 मीटर पहले ही विशालकाय शिलाओं से बना एक द्वार था (जिसे स्थानीय भाषा मे परौली कहा जाता है) इस परौली को आज के समय के बुजुर्गों ने भी देखा है। कुछ दशकों पहले तक यह परौली सही सलामत थी। लेकिन समय के साथ इसने अपना रूप खो दिया है। वहीं पांडवों द्वारा मंदिर क्षेत्र के समीप बहने वाली खड्ड में अनाज को पीसने के लिए घराट भी लगाया गया था।

  • माता हाटेश्वरी के साथ जुड़ी आलौकिक चमत्कार की कहानी

लोकगाथा के अनुसार इस देवी के संबंध में मान्यता है कि बहुत वर्षो पहले एक ब्राह्माण परिवार में दो सगी बहनें थीं। उन्होंने अल्प आयु में ही सन्यास ले लिया और घर से भ्रमण के लिए निकल पड़ी। उन्होंने संकल्प लिया कि वे गांव-गांव जाकर लोगों के दुख दर्द सुनेंगी और उसके निवारण के लिए उपाय बताएंगी। दूसरी बहन हटगढ़ गांव पहुंची जहां मंदिर स्थित है उसने यहां एक खेत में आसन लगाकर ईश्वरीय ध्यान किया और ध्यान करते हुए वह लुप्त हो गई। जिस स्थान पर वह बैठी थी वहां एक पत्थर की प्रतिमा निकल पड़ी। इस आलौकिक चमत्कार से लोगों की उस कन्या के प्रति श्रद्धा बढ़ी और उन्होंने इस घटना की पूरी जानकारी तत्कालीन रियासत के राजा को दी। जब राजा ने इस घटना को सुना तो वह तत्काल पैदल चलकर यहां पहुंचा और प्रतिमा के चरणों में सोना चढ़ाने की इच्छा प्रकट की। जैसे ही सोने के लिए प्रतिमा के आगे कुछ खुदाई की तो वह दूध से भर गया। इसके उपरांत और अधिक खोदने पर राजा ने यहां पर मंदिर बनाने का निश्चय ले लिया। लोगों ने उस कन्या को देवी रूप माना और गांव के नाम से इसे ’हाटेश्वरी देवी’ कहा जाने लगा।

  • श्री हाटेश्वरी मंदिर प्रबंधन समिति करती है देखरेख

वर्तमान में मंदिर की देखरेख श्री हाटेश्वरी मंदिर प्रबंधन समिति हटगढ़ द्वारा देखा जा रहा है। मंदिर कमेटी द्वारा इस मंदिर व समाजिक कार्यों में बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया जाता है। कमेटी द्वारा मंदिर में आने वाले भक्तों के लिए पूरी सुविधाएं उपलब्ध कराई गई है। माता हाटेश्वरी मंदिर में हर वर्ष एक 3 दिवसीय भव्य मेले और नवरात्रों में विशेष आयोजन भी किया जाता है, जिसमें हजारों की संख्या में श्रधालु माता के चरणों में अपना शीश नवाते हैं।