तकीपुर कॉलेज के छात्रों ने जाना कांगड़ा किले का इतिहास

उज्जवल हिमाचल। कांगड़ा
तकीपुर महाविद्यालय के सोशल साइंस सोसायटी के द्वारा एक दिवसीय अध्ययन भ्रमण का आयोजन किया गया। इस आयोजन के माध्यम से कांगड़ा किला का इतिहास के संबंध में विद्यार्थियों को जानकारी प्रदान करना था। इस भ्रमण के दौरान इतिहास के विद्यार्थियों को कांगड़ा संग्रहालय तथा कांगड़ा किला की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को जानने की कोशिश की गई।

कांगड़ा किला भारतीय राज्य हिमाचल प्रदेश के पुराने कांगड़ा शहर के दक्षिण-पश्चिम में स्थित है। ये काँगड़ा शहर से 3-4 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह ऐतिहासिक किला माझी और बाणगंगा नदियों के बीच में एक सीधी तंग पहाड़ी पर बना है। इस किले को नगरकोट या कोट कांगड़ा के नाम से भी जाना जाता है।

यह शहर प्राचीनकाल में 500 राजाओं की वंशावली के पूर्वज, राजा भूमचंद की त्रिगर्त भूमि की राजधानी नगर था। इस किले पर कटोच शासकों के अतिरिक्त अनेक शासकों जैसे तुर्कों, मुगलों, सिखों, गोरखाओं और अंग्रेजों ने राज किया था।
यह किला दुनिया के सबसे पुराने किलों में से एक है।

यह हिमालय का सबसे बड़ा किला और भारत का सबसे पुराना किला है। भारी संख्या में लोग यहां इतिहास की झलक देखने और हिमाचल की सुंदरता निहारने पहुंचते हैं। इस किले के गौरवशाली इतिहास और हिमाचल की सुंदर वादियों को देखने के लिए देश-विदेश से लाखों की संख्या पर्यटक यहाँ आते है।

जितना देखने में यह किला सुंदर है। उतना ही इसका इतिहास भी प्राचीन है। इस ऐतिहासिक किले का उल्लेख महाभारत में भी किया गया है, साथ ही जब महान यूनानी शासक अलेक्जेंडर ने यहाँ आक्रमण किया, तब भी ये किला यहाँ मौजूद था। इस किले के प्राचीनतम लिखित प्रमाण महमूद गजनबी द्वारा साल 1009 में किए गए आक्रमण से मिलते हैं।

बाद में साल 1043 में दिल्ली के तोमर शासकों ने इस किले को पुनः कटोच शासकों को सौंप दिया था। साल 1337 में मुहम्मद तुगलक और बाद में 1351 में फिरोजशाह तुगलक ने इस पर अपना अधिपत्य स्थापित किया था। साल 1556 में अकबर ने दिल्ली संभाली और यह किला राजा धर्मचंद के पास आ गया। सन् 1563 में राजा धर्मचंद का निधन हो गया, जिसके बाद उसका पुत्र माणिक्य चन्द शासक बना।

सन् 1620 में मुगल बादशाह जहांगीर अपने गर्वनरों की सहायता से इस किले को फतह किया। इस जीत के 2 वर्ष पश्चात् जहांगीर जनवरी 1622 में कांगड़ा किले में आया। उसने किले में अपने नाम से जहांगीरी दरवाजा व एक मस्जिद बनवाई थी, जो आज भी यहाँ मौजूद हैं। इसके बाद किले को छीनने के सारे प्रयास विफल रहे और लंबे समय तक यह किला मुगल सेना के कब्जे में रहा।

बटाला के सिख सरदार जय सिंह कन्हैया ने वर्ष 1783 में मुगल सेना से किला अपने कब्जे में ले लिया, जिसे मैदानी क्षेत्रों के बदले किले को तत्कालीन कटोच राजा संसार चंद (1765-1823) को सौंपना पड़ा। इस प्रकार सदियों के बलिदान के पश्चात् हिंदू कांगड़ा नरेश फिर से दुर्ग में लौट पाए।

नेपाल के अमर सिंह थापा के नेतृत्व में गोरखा सेना ने लगभग 4 वर्ष तक इस किले की घेराबंदी की। गोरखों के विरुद्ध सहायता के आश्वासन पर संधि के अनुसार साल 1809 में किले को महाराजा रंजीत सिंह को सौंप दिया गया। साल 1846 तक इस किले पर सिख समुदाय राज रहा, इसके पश्चात् किला अंग्रेजों के अधीन आ गया।

अपने भ्रमण के दौरान हमने इसके लिए इसके कुछ ऐतिहासिक एवं रोचक तथ्यों को भी जाने की कोशिश की । यह शानदार किला समुद्र स्तर से 350 फुट की ऊंचाई पर स्थित है और लगभग 4 किलोमीटर के क्षेत्र में फैला हुआ है। प्राचीनकाल में यह किला धन-संपति के लिए बहुत प्रसिद्ध था, इसलिए मोहम्मद गजनी ने भारत में अपने चौथे अभियान के दौरान पंजाब को जीतने के बाद सीधे 1009 ईसवी में कांगड़ा पहुंच गया था।

इस किले में अन्दर जाने के लिए एक छोटा-सा बरामदा है, जो दो द्वारों के बीच में है। किले के प्रवेश पर की गई शिलालेख के अनुसार इन दो द्वारों को सिख शासनकाल के दौरान बनवाया गया था। किले की सुरक्षा प्राचीन 4 किलो मीटर लम्बी है, मेहराबदार का प्रमुख प्रवेश द्वार महाराजा रंजीत सिंह के नाम पर है, जिसका निर्माण महाराजा रणजीत सिंह के शासनकाल के दौरान किया गया था।

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परन्तु ऐसा कहा जाता है कि जहाँगीर ने पुराने दरवाजे को तुड़वा कर पुनः दरवाजे को बनवाया, इसलिए इसे जहांगीरी दरवाजा कहते है। इसके ऊपर दर्शनी दरवाजा है, जिसके दोनों ओर गंगा एवं यमुना की प्रतिमायें है। यह किले के आतंरिक भाग का प्रवेश द्वार है। इस किले से धौलाधार की सुंदर पहाड़ियों का नजारा भी देखने को मिलता है, जो किले की सुन्दरता में ओर भी चार चाँद लगा देती है।

मुख्य मंदिर के साथ किले का सुरक्षा द्वार है, जिसे अँधेरी दरवाजा कहा जाता था। पुराने कांगड़ा के समीप पहाड़ी के शिखर पर जयंती माँ का एक मंदिर है। इस मंदिर का निर्माण गोरखा सेना के सेनपाति, बड़ा काजी अमर सिंग थापा द्वारा करवाया गया था। किले के पिछले हिस्से में बारूदखाना, मस्जिद, फांसीघर, सूखा तालाब, कपूर तालाब, बारादरी, शिव मंदिर तथा कई कुँए आज भी मौजूद है।

यहाँ आने वाले सैलानी किले के अंदर वॉच टावर, ब्रजेश्वरी मंदिर, लक्ष्मी नारायण मंदिर और आदिनाथ मंदिर के भी दर्शन कर सकते हैं। इस किले के प्राचीनतम अवशेष जोकि लगभग 9वीं-10वीं सदी में स्थापित हिन्दू एवं जैन मंदिरों के रूप में विद्यमान है। अंग्रेजी शासन काल के दौरान 04 अप्रैल 1905 को कांगड़ा में आये भयंकर भूकंप के कारण इस किले को भारी नुकसान हुआ था। जिसके बाद किले को दोबारा कटोच वंश को सौंप दिया गया था।

पर्यटन की दृष्टि से वर्तमान समय में इस किले के संरक्षण और रख-रखाव रॉयल फैमिली ऑफ कांगड़ा, आर्कियालोजिकल सर्वे ऑफ इंडिया और हिमाचल सरकार करती है। रॉयल फैमिली ऑफ कांगड़ा द्वारा वर्ष 2002 में इस किले में महाराजा संसार चंद संग्रहालय की भी स्थापना की गई थी, जिसमें कटोच वंश के शासकों और उस समय में प्रयोग होने वाली युद्ध सामग्री, बर्तन, चांदी के सिक्के, कांगड़ा पेंटिंग्स, अभिलेख, हथियार और उस समय की अन्य वस्तुओं को रखा गया है।

इस भ्रमण का आयोजन के लिए मैं विशेष करके अपने कर्मठ प्राचार्य डा.ॅके. एस अत्री सर का तहे दिल से धन्यवाद करता हूं। जिनके प्रयासों से यह एक सफल आयोजन हो पाया। मुख्य समन्वयक के रूप में प्रोफेसर अमन वालिया तथा प्रोफेसर लेखराज विद्यार्थियों के साथ भ्रमण में उनके साथ उपस्थित रहे।

इस दौरान प्रोफेसर वालिया के द्वारा कांगड़ा के इतिहास के बारे अपना वक्तव्य को सांझा किया और कांगड़ा के इतिहास पर प्रकाश डालने की कोशिश की। किले में विराजमान बृजेश्वरी माता अंबिका माता के रूप में विराजमान माता का विधिवत तरीके से पूजा अर्चना करके उसका आशीर्वाद भी लिया। इस अवसर पर इतिहास के विद्यार्थियों के द्वारा इस अध्ययन भ्रमण पर विशेष उत्साह दिखाया। इतिहास के विद्यार्थियों के लिए यह भ्रमण काफी ज्ञानवर्धक रहा।

संवाददाताः अंकित वालिया

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